ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
लग जाएँ चार चाँद शब-ए-माहताब में
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पढ़ चुके हुस्न की तारीख़ को हम तेरे ब'अद
फ़लक ना-मेहरबाँ है मिल रहे हैं मेहरबाँ फिर भी
कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
हटी ज़ुल्फ़ उन के चेहरे से मगर आहिस्ता आहिस्ता
पूछो न अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो
हुक्म-ए-सय्याद है ता-ख़त्म-ए-तमाशा-ए-बहार
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
अगर आ जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी
न हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती