जल्वा-गर बज़्म-ए-हसीनाँ में हैं वो इस शान से
चाँद जैसे ऐ 'क़मर' तारों भरी महफ़िल में है
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करेंगे शिकवा-ए-जौर-ओ-जफ़ा दिल खोल कर अपना
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
ये रस्ते में किस से मुलाक़ात कर ली
नशेमन ख़ाक होने से वो सदमा दिल को पहुँचा है
वो आग़ाज़-ए-मोहब्बत का ज़माना
उन्हें क्यूँ फूल दुश्मन ईद में पहनाए जाते हैं
मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
रोएँगे देख कर सब बिस्तर की हर शिकन को
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
मूसा समझे थे अरमाँ निकल जाएगा