जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
सितारे टूटते हैं उन के दीदा-ए-नम से
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तौबा कीजे अब फ़रेब-ए-दोस्ती खाएँगे क्या
दिल अगर होता तो मिल जाता निशान-ए-आरज़ू
अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो ऐ 'क़मर'
'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
बाग़-ए-आलम में रहे शादी-ओ-मातम की तरह
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
न हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती
अब मुझे गुलशन से क्या जब ज़ेर-ए-दाम आ ही गया
देखते हैं रक़्स में दिन रात पैमाने को हम
मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना