हक़ बात ही कहेंगे सर-ए-दार देखना
ख़ुदा कातिब की सफ़्फ़ाकी से भी महफ़ूज़ फ़रमाए
मौज-ए-नसीम-ए-सुब्ह न जोश-ए-नुमू से था
जिसे कहते हो तुम इक क़तरा-ए-अश्क
हक़ीक़त को छुपाया हम से क्या क्या उस के मेक-अप ने
हट जाएँ अब ये शम्स-ओ-क़मर दरमियान से
मैं ही बोलूँगा न तू बोलेगा