बाँहों में साँप लपेटे
जब तू मुझ से मिलती है
तेरी साँस में
एक न एक
ज़हर की लहर
कम होती है
सुन री सजनी
जनम जनम से एक शरीर
आधा तेरा
आधा मेरा
तू मर जाए तो सारा मेरा
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जंगल से आगे निकल गया
हवस का रंग ज़ियादा नहीं तमन्ना में
कितनी ही बारिशें हों शिकायत ज़रा नहीं
फूल ज़मीन पर गिरा फिर मुझे नींद आ गई
इक यही दुनिया बदलती है 'फ़रोग़'
हमा-वक़्त जो मिरे साथ हैं ये उभरते डूबते साए से
फ़ज़ा मलूल थी मैं ने फ़ज़ा से कुछ न कहा
आज की रात
सड़कों पे घूमने को निकलते हैं शाम से
साँप वाली
गलियों में आज़ार बहुत हैं घर में जी घबराता है
घर में सहरा है तो सहरा को ख़फ़ा कर देखो