क्या यही थी शर्त कुछ इंसाफ़ की ऐ तुंद-ख़ू
जो भला हो आप से उस से बुराई कीजिए
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अभी से मत कहो दिल का ख़लल जावे तो बेहतर है
क़ुरआँ किताब है रुख़-ए-जानाँ के सामने
तर्क जिस दिन से किया हम ने शकेबाई का
करूँ शिकवा न क्यूँ चर्ख़-ए-कुहन से
नादान कह रहे हैं जिसे आफ़्ताब-ए-हश्र
किस तरह पर ऐसे बद-ख़ू से सफ़ाई कीजिए
अब है दुआ ये अपनी हर शाम हर सहर को
क्या ग़ज़ब है कि चार आँखों में
नासेहा फ़ाएदा क्या है तुझे बहकाने से
मरीज़-ए-हिज्र को सेहत से अब तो काम नहीं
लाज़िम है सोज़-ए-इश्क़ का शो'ला अयाँ न हो
यूँ जो ढूँडो तो यहाँ शहर में अन्क़ा निकले