दम-ए-तकफ़ीन भी गर यार आवे
तो निकलें हाथ बाहर ये कफ़न से
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नासेहा फ़ाएदा क्या है तुझे बहकाने से
अब है दुआ ये अपनी हर शाम हर सहर को
अभी से मत कहो दिल का ख़लल जावे तो बेहतर है
इस तरह आह कल हम उस अंजुमन से निकले
न पहुँचा गोश तक इक तेरे हैहात
नादान कह रहे हैं जिसे आफ़्ताब-ए-हश्र
किस तरह पर ऐसे बद-ख़ू से सफ़ाई कीजिए
मरीज़-ए-हिज्र को सेहत से अब तो काम नहीं
लाज़िम है सोज़-ए-इश्क़ का शोला अयाँ न हो
क्या ग़ज़ब है कि चार आँखों में
फ़स्ल-ए-गुल में जो कोई शाख़-ए-सनोबर तोड़े