या ख़ुदा अब के ये किस रंग में आई है बहार
ज़र्द ही ज़र्द है पेड़ों पे हरा कुछ भी नहीं
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सब लोग इस से पहले कि देवता समझते
है कोई बैर सा उस को मिरी तदबीर के साथ
क्या जाने किस जहाँ में मिलेगा हमें सुकून
ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा
मिरी इक ज़िंदगी के कितने हिस्से-दार हैं लेकिन
दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह
शौक़ की हद को अभी पार किया जाना है
हर एक साँस ही हम पर हराम हो गई है
बड़ी तस्वीर लटका दी है अपनी
कुछ इस क़दर मैं ख़िरद के असर में आ गया हूँ
यहाँ हर शख़्स हर पल हादसा होने से डरता है