दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं
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बड़ी तस्वीर लटका दी है अपनी
इजाज़त कम थी जीने की मगर मोहलत ज़ियादा थी
मैं ने तो ब'अद में तोड़ा था इसे
ये जो ज़िंदगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है
कुछ इस तरह गुज़ारा है ज़िंदगी को हम ने
कुछ परिंदों को तो बस दो चार दाने चाहिएँ
शौक़ की हद को अभी पार किया जाना है
सब लोग इस से पहले कि देवता समझते
शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
वो दिल से कम ज़बाँ ही से ज़ियादा बात करता था