दिल भी बच्चे की तरह ज़िद पे अड़ा था अपना
जो जहाँ था ही नहीं उस को वहीं ढूँढना था
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दिन को दिन रात को मैं रात न लिखने पाऊँ
ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा
ग़म को दिल का क़रार कर लिया जाए
जाने कितनी उड़ान बाक़ी है
जुस्तुजू का इक अजब सिलसिला ता-उम्र रहा
कितनी आसानी से दुनिया की गिरह खोलता है
रंग मौसम का हरा था पहले
जिस को भी देखो तिरे दर का पता पूछता है
आदमी ही के बनाए हुए ज़िंदाँ हैं ये सब
मिरी इक ज़िंदगी के कितने हिस्से-दार हैं लेकिन
दरवाज़े के अंदर इक दरवाज़ा और
ग़म बिक रहे थे मेले में ख़ुशियों के नाम पर