बुलंदी के लिए बस अपनी ही नज़रों से गिरना था
हमारी कम-नसीबी हम में कुछ ग़ैरत ज़ियादा थी
Wasi Shah
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कुछ परिंदों को तो बस दो चार दाने चाहिएँ
कुछ इस क़दर मैं ख़िरद के असर में आ गया हूँ
घर से निकले थे हौसला कर के
ग़म बिक रहे थे मेले में ख़ुशियों के नाम पर
मयस्सर मुफ़्त में थे आसमाँ के चाँद तारे तक
कुछ इस तरह गुज़ारा है ज़िंदगी को हम ने
ऐसे न बिछड़ आँखों से अश्कों की तरह तू
रंग मौसम का हरा था पहले
दुनिया से, जिस से आगे का सोचा नहीं गया
दोस्तों का क्या है वो तो यूँ भी मिल जाते हैं मुफ़्त
दिन को दिन रात को मैं रात न लिखने पाऊँ