क्या जाने किस जहाँ में मिलेगा हमें सुकून
नाराज़ हैं ज़मीं से ख़फ़ा आसमाँ से हम
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शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
जिस को भी देखो तिरे दर का पता पूछता है
सुना है ये जहाँ अच्छा था पहले
मैं ने तो ब'अद में तोड़ा था इसे
दिल भी बच्चे की तरह ज़िद पे अड़ा था अपना
अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम
ये जो ज़िंदगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है
दुनिया से, जिस से आगे का सोचा नहीं गया
जाने कितनी उड़ान बाक़ी है
मिरी इक ज़िंदगी के कितने हिस्से-दार हैं लेकिन
न जिस्म साथ हमारे न जाँ हमारी तरफ़