गर्म इन रोज़ों में कुछ इश्क़ का बाज़ार नहीं
बेचता दिल को हूँ मैं कोई ख़रीदार नहीं
देखना तेरा मयस्सर है किसे ओ ज़ालिम
वर्ना वो कौन है जो तालिब-ए-दीदार नहीं
अब मुसल्लत ग़ज़ल इक कह के सुना ऐ 'रंगीं'
शेर ये पढ़ने के लायक़ तिरे ज़िन्हार नहीं
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बादल आए हैं घिर गुलाल के लाल
फिर बहार आई मिरे सय्याद को पर्वा नहीं
ग़ैर की ख़ातिर से तुम यारों को धमकाने लगे
वो न आए तो तू ही चल 'रंगीं'
मनअ करते हो अबस यारो आज
हमदमो क्या मुझ को तुम उन से मिला सकते नहीं
ता हश्र रहे ये दाग़ दिल का
चाह कर हम उस परी-रू को जो दीवाने हुए
है ये दुनिया जा-ए-इबरत ख़ाक से इंसान की
तुझ को आती है दिलासे की नहीं बात कोई
पा-बोस-ए-यार की हमें हसरत है ऐ नसीम