बादल आए हैं घिर गुलाल के लाल
कुछ किसी का नहीं किसी को ख़याल
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ता हश्र रहे ये दाग़ दिल का
पा-बोस-ए-यार की हमें हसरत है ऐ नसीम
ज़ुल्म की टहनी कभी फलती नहीं
हमदमो क्या मुझ को तुम उन से मिला सकते नहीं
गर्म इन रोज़ों में कुछ इश्क़ का बाज़ार नहीं
ग़ैर की ख़ातिर से तुम यारों को धमकाने लगे
चाह कर हम उस परी-रू को जो दीवाने हुए
झूटा कभी न झूटा होवे
था जहाँ मय-ख़ाना बरपा उस जगह मस्जिद बनी
तुझ को आती है दिलासे की नहीं बात कोई