शहर में जैसे कोई आसेब है
शहर में मुद्दत से हंगामा नहीं
Gulzar
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तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ
बारहा हम पे क़यामत गुज़री
शाम से पहले घर गए होते
पास अपने इक जान है साईं
हाथ में ख़ंजर आ सकता है
मिट्टी जब तक नम रहती है
तेरे आने का इंतिज़ार रहा
हाल-ए-दिल पूछते हो क्या तुम ने
रात क्या सोच रहा था मैं भी
ज़िंदगी के सराब भी देखूँ
शेर-ओ-सुख़न का शहर नहीं ये शहर-ए-इज़्ज़त-ए-दारां है
हर चीज़ से मावरा ख़ुदा है