शेर-ओ-सुख़न का शहर नहीं ये शहर-ए-इज़्ज़त-ए-दारां है
तुम तो 'रसा' बद-नाम हुए क्यूँ औरों को बद-नाम करूँ
Gulzar
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सिर्फ़ माने थी हया बंद-ए-क़बा खुलने तलक
जब भी तेरी यादों का सिलसिला सा चलता है
अल्फ़ाज़ में बंद हैं मआनी
शाम से पहले घर गए होते
आज मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू है हयात
रात है या हवा मकानों में
मुमकिन है वो दिन आए कि दुनिया मुझे समझे
अब जो देखा तो दास्तान से दूर
हम ने तो इस इश्क़ में यारो खींचे हैं आज़ार बहुत
इस घर की सारी दीवारें शीशे की हैं
आहटें सुन रहा हूँ यादों की
इश्क़ में भी सियासतें निकलीं