आज मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू है हयात
अब कोई और बात कल कहना
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तेरे आने का इंतिज़ार रहा
है लेकिन अजनबी ऐसा नहीं है
हम किसी को गवाह क्या करते
ख़्वाब उस के हैं जो चुरा ले जाए
कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे
इश्क़ में भी सियासतें निकलीं
पास अपने इक जान है साईं
ज़िंदगी के सराब भी देखूँ
अल्फ़ाज़ में बंद हैं मआनी
मोहब्बत ख़ब्त है या वसवसा है
हाथ में ख़ंजर आ सकता है
जिन आँखों से मुझे तुम देखते हो