हम किसी को गवाह क्या करते
इस खुले आसमान के आगे
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शहर में जैसे कोई आसेब है
हम ने तो इस इश्क़ में यारो खींचे हैं आज़ार बहुत
जब तक दौर-ए-जाम चलेगा
कहाँ जाते हैं आगे शहर-ए-जाँ से
मैं ने सोचा था इस अजनबी शहर में ज़िंदगी चलते-फिरते गुज़र जाएगी
है लेकिन अजनबी ऐसा नहीं है
कोई ता'मीर की सूरत निकालो
मिट्टी जब तक नम रहती है
उठ रहा है धुआँ मिरे घर में
इश्क़ में भी सियासतें निकलीं
सामने जी सँभाल कर रखना
आज मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू है हयात