मिट्टी जब तक नम रहती है
ख़ुश्बू ताज़ा-दम रहती है
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है कोई यहाँ शहर में ऐसा कि जिसे मैं
रात क्या सोच रहा था मैं भी
हर इक दरवेश का क़िस्सा अलग है
जिन आँखों से मुझे तुम देखते हो
और कुछ यूँ हुआ कि बच्चों ने
पास अपने इक जान है साईं
यूँ गँवाता है कोई जान-ए-अज़ीज़
आज मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू है हयात
रात है या हवा मकानों में
कौन दिल की ज़बाँ समझता है
कहाँ जाते हैं आगे शहर-ए-जाँ से