कौन दिल की ज़बाँ समझता है
दिल मगर ये कहाँ समझता है
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इस घर की सारी दीवारें शीशे की हैं
चराग़-ए-सुब्ह से शाम-ए-वतन की बात करो
हम किसी को गवाह क्या करते
और कुछ यूँ हुआ कि बच्चों ने
दिल ने अपनी ज़बाँ का पास किया
तुझ से मिलने को बे-क़रार था दिल
तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ
यूँ गँवाता है कोई जान-ए-अज़ीज़
सामने जी सँभाल कर रखना
तेरे आने का इंतिज़ार रहा
उम्र गुज़री रहगुज़र के आस-पास