इस घर की सारी दीवारें शीशे की हैं
लेकिन इस घर का मालिक ख़ुद इक पत्थर है
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रात क्या सोच रहा था मैं भी
उठ रहा है धुआँ मिरे घर में
कहाँ जाते हैं आगे शहर-ए-जाँ से
जिन आँखों से मुझे तुम देखते हो
शहर में जैसे कोई आसेब है
हाल-ए-दिल पूछते हो क्या तुम ने
ज़िंदगी के सराब भी देखूँ
उस से कहना कि कभी आ के मिले
कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे
मैं ने सोचा था इस अजनबी शहर में ज़िंदगी चलते-फिरते गुज़र जाएगी
हुस्न-ए-बज़्म-ए-मिसाल में क्या है
हर चीज़ से मावरा ख़ुदा है