सिर्फ़ माने थी हया बंद-ए-क़बा खुलने तलक
फिर तो वो जान-ए-हया ऐसा खुला ऐसा खुला
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अपनी बे-चेहरगी में पत्थर था
है लेकिन अजनबी ऐसा नहीं है
हम किसी को गवाह क्या करते
जब तक दौर-ए-जाम चलेगा
तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ
सहरा-ए-बे-ख़याल में जल-थल कहाँ के हैं
हाथ में ख़ंजर आ सकता है
शाम से पहले घर गए होते
निकल कर साया-ए-अब्र-ए-रवाँ से
उस से कहना कि कभी आ के मिले
उम्र गुज़री रहगुज़र के आस-पास
बहुत दिनों में ये उक़्दा खुला कि मैं भी हूँ