अब इस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी मुझ को
कि चाहता हूँ तुझे भी भुला दिया जाए
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अगर क़दम तिरे मय-कश का लड़खड़ा जाए
ना-आश्ना-ए-दर्द नहीं बेवफ़ा नहीं
इब्तिदा हूँ कि इंतिहा हूँ मैं
जब से आया हूँ तेरे गाँव में
उम्र भर तुझ को देखने पर भी
जलता रहा हूँ ज़ीस्त के दोज़ख़ में उम्र भर
रहा असीर कई साल नक़्श-ए-पा की तरह
अब कहीं साया-ए-गेसू भी नहीं
दिल में कोई ख़ुशी नहीं लेकिन
मुझे भी यूँ तो बड़ी आरज़ू है जीने की
लम्हा लम्हा शुमार करता हूँ