उम्र भर तुझ को देखने पर भी
ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा कम नहीं होता
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अब इस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी मुझ को
नादान दिल-फ़रेब मोहब्बत न खा कभी
जी रहा हूँ कुछ इस तरह जैसे
सफ़र-ए-ज़िंदगी नहीं आसाँ
हुए जब से मोहब्बत-आश्ना हम
दिल में कोई ख़ुशी नहीं लेकिन
जब से आया हूँ तेरे गाँव में
जब नशात-ए-अलम नहीं होता
ग़म-ए-हयात से इतनी भी है कहाँ फ़ुर्सत
तू मिरी बात का जवाब न दे
रहा असीर कई साल नक़्श-ए-पा की तरह
मुझे भी यूँ तो बड़ी आरज़ू है जीने की