जी रहा हूँ कुछ इस तरह जैसे
आग लग जाए और हो न धुआँ
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जो रिवायात भूल जाते हैं
लम्हा लम्हा शुमार करता हूँ
नादान दिल-फ़रेब मोहब्बत न खा कभी
उम्र भर तुझ को देखने पर भी
सफ़र-ए-ज़िंदगी नहीं आसाँ
जब से आया हूँ तेरे गाँव में
जब नशात-ए-अलम नहीं होता
मुझे भी यूँ तो बड़ी आरज़ू है जीने की
मसर्रतों का खिला है हर एक सम्त चमन
हुए जब से मोहब्बत-आश्ना हम
तू मिरी बात का जवाब न दे