तू मिरी बात का जवाब न दे
मैं समझता हूँ ख़ामुशी की ज़बाँ
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जब से आया हूँ तेरे गाँव में
जलता रहा हूँ ज़ीस्त के दोज़ख़ में उम्र भर
ग़म-ए-हयात से इतनी भी है कहाँ फ़ुर्सत
रहा असीर कई साल नक़्श-ए-पा की तरह
जो रिवायात भूल जाते हैं
दिल में कोई ख़ुशी नहीं लेकिन
ना-आश्ना-ए-दर्द नहीं बेवफ़ा नहीं
अब इस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी मुझ को
जब नशात-ए-अलम नहीं होता
हुए जब से मोहब्बत-आश्ना हम
उम्र भर तुझ को देखने पर भी