मय-ख़ाने में क्यूँ याद-ए-ख़ुदा होती है अक्सर
मस्जिद में तो ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना नहीं होता
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मर कर अरे वाइज़ कोई ज़िंदा नहीं होता
हम जाम-ए-मय के भी लब तर चूसते नहीं
ये कहाँ से हम गए हैं कहाँ कहें क्या तिरी तग-ओ-ताज़ में
न तारे अफ़्शाँ न कहकशाँ है नमूना हँसती हुई जबीं का
गुल मुरक़्क़ा' हैं तिरे चाक गरेबानों के
होगी वो दिल में जो ठानी जाएगी
कल क़यामत है क़यामत के सिवा क्या होगा
देखिएगा सँभल कर आईना
मुँह ज़ेर-ए-ताक खोला वाइज़ बहुत ही चूका
दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं
'रियाज़' तौबा न टूटे न मय-कदा छूटे
हम ने देखा तरफ़-ए-मय-कदा जाते थे 'रियाज़'