शैख़-जी गिर गए थे हौज़ में मयख़ाने के
डूब कर चश्मा-ए-कौसर के किनारे निकले
Gulzar
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कहना किसी का सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल नाज़ से
रहमत से 'रियाज़' उस की थे साथ फ़रिश्ते दो
ये सुन के आज हश्र में वो बात भी तो हो
जोबन उन का उठान पर कुछ है
ग़लत है आप न थे हम-कलाम ख़ल्वत में
मय रहे मीना रहे गर्दिश में पैमाना रहे
वा'दा था जिस का हश्र में वो बात भी तो हो
हम बंद किए आँख तसव्वुर में पड़े हैं
कल क़यामत है क़यामत के सिवा क्या होगा
शोख़ी से हर शगूफ़े के टुकड़े उड़ा दिए
पाऊँ तो इन हसीनों का मुँह चूम लूँ 'रियाज़'
क़द्र मुझ रिंद की तुझ को नहीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ