चले आइए
ज़बानों की सरहद के उस पार
जहाँ बस ख़मोशी का दरिया
मचलता है अपने में तन्हा
ख़ुद अपने अदम ही में ज़िंदा
किसी की भी आमद नहीं है
बस इक जाल पैहम हदों का
मगर कोई सरहद नहीं है
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ख़ला की रूह किस लिए हो मेरे इख़्तियार में
वीरान ख़्वाहिश
आमद
यहीं पर ख़त्म होनी चाहिए थी एक दुनिया
ताख़ीर आ पड़ी जो बदन के ज़ुहूर में
किनारा-दर-किनारा मुस्तक़िल मंजधार है यूँ भी
ज़मीन फैल गई है हमारी रूह तलक
ख़ुद अपना इंतिज़ार भी
बाद में रखे सराबों के दयारों में क़दम
हदों के न होने की ज़िल्लत से हारे हुए
ले जाऊँ कहीं उन को बदन पार ही रक्खूँ
तमाम ख़लियों में अक्सर सुनाई देता है