ज़मीन फैल गई है हमारी रूह तलक
जहाँ का शोर अब अंदर सुनाई देता है
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Faiz Ahmad Faiz
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किसी ने हम को अता नहीं की हमारी गर्दिश है अपनी गर्दिश
साबुन
हिजरत
दुनिया से परे जिस्म के इस बाब में आए
ना-मुकम्मल तआरुफ़
एक रोते हुए आदमी को देख कर
मिरे सिमटे लहू का इस्तिआरा ले गया कोई
ग़ैबी दुनियाओं से तन्हा क्यूँ आता है
ताख़ीर आ पड़ी जो बदन के ज़ुहूर में
गाए
कभी तो मंज़रों के इस तिलिस्म से उभर सकूँ
बाद में रखे सराबों के दयारों में क़दम