सब करिश्मे तअल्लुक़ात के हैं
ख़ाक उड़ती है ख़ाक-दान में क्या
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Mir Taqi Mir
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ज़िक्र मेरा है आसमान में क्या
उस दिन से पानियों की तरह बह रहे हैं हम
डूबते सूरज की सरगोशी
चिता में बैठी ख़्वाहिश
निस्फ़ हिज्र के दयार से
जो तिरे ख़ित्ता-ए-बे-आब की ख़्वाहिश न बना
जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है
वही ख़राबा-ए-इम्काँ वही सिफ़ाल-ए-क़दीम
ज़ात की काल कोठरी से आख़िरी नश्रिया
हम ज़ात से हम कलामी और फ़िराक़
मिरा वजूद हवाला तिरा हुआ आख़िर