कि जलते बदन की सराए से
कुछ फ़ासले पर
अगर आँख में एक आँसू लिए
तुम ये सोचो
कि दश्त-ए-तमन्ना में जलता हुआ ये पड़ाव
तुम्हारी थकन का पड़ाव है शायद
तो होने की होनी से पूछूँ
बता अब तिरी ख़ाक के नम में ज़र-ख़ेज़ियाँ किस क़दर हैं
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हैरत-ए-पैहम हुए ख़्वाब से मेहमाँ तिरे
वही ख़राबा-ए-इम्काँ वही सिफ़ाल-ए-क़दीम
जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है
सब करिश्मे तअल्लुक़ात के हैं
डूबते सूरज की सरगोशी
हम ज़ात से हम कलामी और फ़िराक़
जब बीनाई सावन ने चुराई हो
जल थल का ख़्वाब था कि किनारे डुबो गया
ज़िक्र मेरा है आसमान में क्या
शोरिश-ए-वक़्त हुई वक़्त की रफ़्तार में गुम
चिता में बैठी ख़्वाहिश
पत्थर को पूजते थे कि पत्थर पिघल पड़ा