उसी के लुत्फ़ से बस्ती निहाल है सारी
तमाम पेड़ लगाए हुए उसी के हैं
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मैं भी अपनी ज़ात में आबाद हूँ
तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो
हिज्र तन्हाई के लम्हों में बहुत बोलता है
सोने के दिल मिट्टी के घर पीछे छोड़ आए हैं
उज़्र हवा ने क्या रक्खा है
अपनी आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को
शाम के आसार गीले हैं बहुत
चेहरा चेहरा ग़म है अपने मंज़र में
तुम से मिलने का बहाना तक नहीं
नज़र में रंग समाए हुए उसी के हैं
अंजाम