एक सुब्ह का तारा
सर पे आसमाँ ओढ़े
रौशनी के ज़ीने से रोज़ उतर के आता है
और इस नए घर के
अध-खुले दरीचे में आ के बैठ जाता है
हाथ के इशारों से
दाएरे बनाता है
और मैं मोहब्बत की बूँद बूँद किरनों में
रोज़ डूब जाता हूँ
Faiz Ahmad Faiz
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सोने के दिल मिट्टी के घर पीछे छोड़ आए हैं
हिज्र तन्हाई के लम्हों में बहुत बोलता है
शाम के आसार गीले हैं बहुत
अंजाम
नज़र में रंग समाए हुए उसी के हैं
उसी के लुत्फ़ से बस्ती निहाल है सारी
तुम से मिलने का बहाना तक नहीं
उज़्र हवा ने क्या रक्खा है
रोज़ हवा में उड़ने की फ़रमाइश है
मैं भी अपनी ज़ात में आबाद हूँ
इंतिज़ार
तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो