मैं भी अपनी ज़ात में आबाद हूँ
मेरे अंदर भी क़बीले हैं बहुत
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इंतिज़ार
हिज्र तन्हाई के लम्हों में बहुत बोलता है
तआक़ुब
तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो
उसी के लुत्फ़ से बस्ती निहाल है सारी
नज़र में रंग समाए हुए उसी के हैं
शाम के आसार गीले हैं बहुत
तुम से मिलने का बहाना तक नहीं
सोने के दिल मिट्टी के घर पीछे छोड़ आए हैं
उज़्र हवा ने क्या रक्खा है
अपनी आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को