अपनी आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को
एक सन्नाटा कि गलियों में बहुत बोलता है
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तुम से मिलने का बहाना तक नहीं
तआक़ुब
नज़र में रंग समाए हुए उसी के हैं
मैं भी अपनी ज़ात में आबाद हूँ
चेहरा चेहरा ग़म है अपने मंज़र में
हिज्र तन्हाई के लम्हों में बहुत बोलता है
उसी के लुत्फ़ से बस्ती निहाल है सारी
इंतिज़ार
रोज़ हवा में उड़ने की फ़रमाइश है
शाम के आसार गीले हैं बहुत
अंजाम