दीवार ऐसी मत उठा
पानी
मिट्टी
हवा
मुत्तसिल हैं
आग ने तपाया है इन्हें
तुम्हारे फ़ेल-ए-मनफ़िया से
इत्तिसाल टूट जाएगा
रंग ज़ंजीरों से नहीं बंधता
कोई घर दीवार से नहीं बनता
बनता है
खुले दरवाज़ों से
खुली खिड़कियों से
Gulzar
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असासा
शफ़्फ़ाफ़ रंग
घर
धूप थी साया उठा कर रख दिया
नौ-ब-नौ एक उमडता हुआ तूफ़ान था मैं
ख़ुद को ख़ुद में तहलील करो
आज कुआँ भी चीख़ उठा है
उस की आँखों में थी गहराई बहुत
बे-घरी
मकड़ियों ने जब कहीं जाला तना
शेर गुफा से निकलेगा
अब के वो ऐसे सफ़र पर क्या गए