माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम
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आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें
ऐ शरीफ़ इंसानो
विर्सा
हमीं से रंग-ए-गुलिस्ताँ हमीं से रंग-ए-बहार
ज़िंदगी-भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात
सब में शामिल हो मगर सब से जुदा लगती हो
ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया
तोड़ लेंगे हर इक शय से रिश्ता तोड़ देने की नौबत तो आए
तुलू-ए-इश्तिराकियत
फ़रार
बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
ऐ नई नस्ल