साल गुज़र जाता है सारा
और कैलन्डर रह जाता है
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ये जो तालाब है दरिया था कभी
ख़ुद से अपना आप मिलाया जा सकता है
नज़र आते थे हम इक दूसरे को
ग़फ़लतों का समर उठाता हूँ
नज़र की धूप में आने से पहले
ऐसी वैसी पे क़नाअत नहीं कर सकते हम
जब तआ'रुफ़ से बे-नियाज़ था मैं
ख़्वाब-ज़ादों का दुख ज़मीनी है
इक अदावत से फ़राग़त नहीं मिलती वर्ना
फिर ऐसा मोड़ इस क़िस्से में आया
भँवर में मशवरे पानी से लेता हूँ
जहाँ चौखट है वाँ ज़ीना था पहले