जो सारा दिन मिरे ख़्वाबों को रेज़ा रेज़ा करते हैं
मैं उन लम्हों को सी कर रात का बिस्तर बनाती हूँ
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बिंत-ए-हव्वा
दिल के दरिया ने किनारों से मोहब्बत कर ली
वक़्त भी मरहम नहीं है
तुम्हारी मुंतज़िर यूँ तो हज़ारों घर बनाती हूँ
सवाब की दुआओं ने गुनाह कर दिया मुझे
फिर आस दे के आज को कल कर दिया गया
बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है
सदाओं का समुंदर
वक़्त भी अब मिरा मरहम नहीं होने पाता
मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है
अपनी हम-ज़ाद के लिए