इस से बेहतर और कह लेंगे अगर ज़िंदा हैं 'शाद'
खो गया पहला जो वो दीवान क्या था कुछ न था
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शगुफ़्ता होते ही मुरझा गई कली अफ़सोस
क्या कहूँ ग़ुंचा-ए-गुल नीम-दहाँ है कुछ और
जो मुर्ग़-ए-क़िबला-नुमा बन के आशियाँ से चले
न जान कर गुल-ए-बाज़ी बहुत उछाल के फेंक
हर शब ख़याल-ए-ग़ैर के मारे अलग-थलग
जब जीते-जी न पूछा पूछेंगे क्या मरे पर
ग़ैरों में हिना वो मल रहा है
ये सनम भी घटोर कितने हैं
लब-ब-लब बिंत-उल-अनब हर-दम रहे
शक्ल-ए-मिज़्गाँ न ख़ार की सी है
बोसा ज़ुल्फ़-ए-दोता का दो
क़ौल उस दरोग़-गो का कोई भी सच हुआ है