हर एक जवाहर बेश-बहा चमका तो ये पत्थर कहने लगा
जो संग तिरा वो संग मिरा तू और नहीं मैं और नहीं
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ज़रा देखना ख़ाकसारी हमारी
क्या कहूँ ग़ुंचा-ए-गुल नीम-दहाँ है कुछ और
बोसा ज़ुल्फ़-ए-दोता का दो
शगुफ़्ता होते ही मुरझा गई कली अफ़सोस
लब-ए-जाँ-बख़्श पर जो नाला है
न तड़पने की इजाज़त है न फ़रियाद की है
जब जीते-जी न पूछा पूछेंगे क्या मरे पर
गले लिपटे हैं वो बिजली के डर से
जो बीच में आइना हो प्यारे इधर हमारे उधर तुम्हारे
जों सब्ज़ा रहे उगते ही पैरों के तले हम
सदा रंग-ए-मीना चमकता रहा
ख़ुदा ही उस चुप की दाद देगा कि तुर्बतें रौंदे डालते हैं