'मीर'-ओ-'ग़ालिब' की तरह सेहर-बयाँ से निकले
शे'र ऐसा भी कोई दिल से ज़बाँ से निकले
अश्क से भीगे हुए मैं मिरे अल्फ़ाज़-ए-ग़ज़ल
आग से कोई लपक जैसे धुआँ से निकले
कोई सैलाब भी रोके से नहीं रुकता है
रास्ता था ही नहीं फिर भी वहाँ से निकले
Habib Jalib
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मैं और तुम
मेरा उस का साथ
फ़रियाद
दिल से
मा'दूम होती ख़ुश्बू
समुंदर का रास्ता
मेरी शाइ'री
दामन में आँसू मत बोना
तेरी संग
मेरा शहर
जो मैं ने सोचा था