दिए हैं ज़िंदगी ने ज़ख़्म ऐसे
कि जिन का वक़्त भी मरहम नहीं है
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गुलाब-ब-कफ़
शहर-ए-ख़ूबाँ से जो हम अब भी गुज़र आते हैं
दुनिया ने बस थका ही दिया काम कम हुए
निकल के घर से फिर इस तरह घर गए हम तुम
मिज़ाज-ए-गर्दिश-ए-दौराँ वही समझते हैं
यूँ उलझ कर रह गई है तार-ए-पैराहन में रात
दिल जहाँ भी डूबा है उन की याद आई है
ख़ाक-ए-दिल कहकशाँ से मिलती है
हमारे हाल-ए-ज़बूँ पर मलाल है कितना
ख़ुद अपने ज़हर को पीना बड़ा करिश्मा है
दिन छोटा है रात बड़ी है
थी कुछ न ख़ता फिर भी पशेमान रहे हैं