वो 'सारा'-अहमदी की दफ़-नवाज़ी
और वो इश्क़-ए-मौलवी
फिर यूँ हुआ
वो तक-तक-ए-दफ़
महव होती जा रही थीं
हक़ हक़-ए-हक़ में
ये फ़ैज़ान-ए-निगाह-ए-'शम्स' था या
जज़्ब-ए-क़ल्ब-ए-मौलवी था
ब'अद-अज़ाँ
जो कुछ भी था वो सरमदी था
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कार-ए-जहाँ दराज़ है
इस सोच में ही मरहला-ए-शब गुज़र गया
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
तो क्या तड़प न थी अब के मिरे पुकारे में
मुनकिर-ए-हक़
ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है
बदल जाएगा सब कुछ ये तमाशा भी नहीं होगा
तुम अपनी सब्ज़ आँखें बंद कर लो
महसूर था
वो बात
मैं वापस आऊँगा
नसीब-ए-चश्म में लिक्खा है गर पानी नहीं होना