फ़सील-ए-जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
हुदूद-ए-वक़्त से आगे निकल गया है कोई
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मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
दश्त ओ सहरा अगर बसाए हैं
दर्द के मौसम का क्या होगा असर अंजान पर
गूँजता है नाला-ए-महताब आधी रात को
दिल के वीराने में इक फूल खिला रहता है
लोग दुश्मन हुए उसी के 'शकेब'
मुबारक वो साअत
मिरे ख़ुलूस की शिद्दत से कोई डर भी गया
जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
इस ख़ाक-दाँ में अब तक बाक़ी हैं कुछ शरर से
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
इंदिमाल