लोग दुश्मन हुए उसी के 'शकेब'
काम जिस मेहरबान से निकला
Javed Akhtar
Jaun Eliya
Habib Jalib
Parveen Shakir
Anwar Masood
Gulzar
Mohsin Naqvi
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Rahat Indori
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फ़सील-ए-जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
वही झुकी हुई बेलें वही दरीचा था
बस इक शुआ-ए-नूर से साया सिमट गया
साहिल तमाम अश्क-ए-नदामत से अट गया
गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह
कहता है आफ़्ताब ज़रा देखना कि हम
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
जब तक ग़म-ए-जहाँ के हवाले हुए नहीं
'शकेब' अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
इस ख़ाक-दाँ में अब तक बाक़ी हैं कुछ शरर से