कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
आईना ग़ौर से तू ने कभी देखा ही नहीं
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आया है हर चढ़ाई के बा'द इक उतार भी
शफ़क़ जो रू-ए-सहर पर गुलाल मलने लगी
साथी
जाती है धूप उजले परों को समेट के
गूँजता है नाला-ए-महताब आधी रात को
इंदिमाल
मीठे चश्मों से ख़ुनुक छाँव से दूर
गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के
वक़्त ने ये कहा है रुक रुक कर
वही झुकी हुई बेलें वही दरीचा था
आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे