कोई इस दिल का हाल क्या जाने
एक ख़्वाहिश हज़ार तह-ख़ाने
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हवा-ए-शब से न बुझते हैं और न जलते हैं
साहिल तमाम अश्क-ए-नदामत से अट गया
लोग दुश्मन हुए उसी के 'शकेब'
मीठे चश्मों से ख़ुनुक छाँव से दूर
मल्बूस ख़ुश-नुमा हैं मगर जिस्म खोखले
आया है हर चढ़ाई के बा'द इक उतार भी
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
समझ सको तो ये तिश्ना-लबी समुंदर है
ग़म-ए-दिल हीता-ए-तहरीर में आता ही नहीं
बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
इश्क़ के ग़म-गुसार हैं हम लोग
'शकेब' अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है