'शकेब' अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
हम उस से बच के चलते हैं जो रस्ता आम हो जाए
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मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
ख़िरद फ़रेब-ए-नज़ारों की कोई बात करो
आग के दरमियान से निकला
उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ
वही झुकी हुई बेलें वही दरीचा था
प्यार की जोत से घर घर है चराग़ाँ वर्ना
आ के पत्थर तो मिरे सेहन में दो-चार गिरे
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
कोई इस दिल का हाल क्या जाने
मीठे चश्मों से ख़ुनुक छाँव से दूर
जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया